Tuesday, March 27, 2012

बचपन

मुस्कुराहटें हर देश में एक सी होती हैं 
वो खेल वो खिलोने
वो मिटटी के बिछौने
वो गुड्डे वो गुड़ियाँ
वो जादू सी घड़ियाँ
कहाँ से मैं लाऊं वो चमकीली आखें
जो नीड़ में चिड़िया के कौतुहल के साथ झांकें
वो आँखें जिनके सपनो में
फूलों की परियां
चंदा मामा की लोरी और तारों की दरियाँ
कहाँ खो गयी वो बचपन की अक्लमंदी
की ज़ख्मों को खा कर जब एक आँख मूंदी
जो कोई न देखे तो संभले और भागे
मगर माँ जो देखे तो आंसू के धागे
कहाँ से वो बचपन की कविता अब लाऊँ 
की शब्दों को खा कर जिसे मैं सुनाऊँ
अगर ढूंढ कर फिर भी वो गीत लाऊँ
कहाँ से लरज़ती वो आवाज़ पाऊं
क्यूँकि नन्हे से पाँव अब बड़े हो गए हैं
फूलों से वो हाथ अब कड़े हो गए हैं
याद आया ये सब जब मिली एक पारी
गाल जिसके गुलाबी
मगर आँखें भरी
पूछती जब वो भोली सी नन्ही सी जान
पापा कब छोटे होंगे और कब मैं जवान?
March 3, 2004

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