मौसम |
एकांत की किसी संध्या को
जब कभी स्मरण हो आता है
इस जीवन का खालीपन तब कुछ और मुखर हो जाता है ....
वर्षा के पुलकित मौसम में
खाली मैदान की माटी से
जब कोई अंकुर उठता है
धरती से पौधा उठता है
उन्मुक्त हवा में प्रथम बार
आती पहली अंगडाई को
जब क़दम कोई कुचल जाता है
इस जीवन का खालीपन तब कुछ और मुखर हो जाता है ....
मेरे बनते आशियाने में
मजदूर की प्यारी सी बच्ची
मुट्ठी में ले थोड़ी रेती
घर की परिक्रमा लगाती है
अपने दो रूपये की पायल
छनका कर मुझे दिखाती है
उस नन्ही सी बच्ची का सर
जब उसी रेत के बोझे से
कुछ नीचे को झुक जात हैइस जीवन का खालीपन तब कुछ और मुखर हो जाता है ....
जब फटे पुराने कपड़ो में
कुछ आठ साल का एक लड़का
एक मधुर तराना गता सा
धीरे धीरे मुस्काता सा
खाने की मेज़ पोंछता है
और जूठन सभी उठाता है
मैला पोंछा उन हाथों का
तब मुझको शक्ल चिढाता है
और इस जीवन का खालीपन कुछ और मुखर हो जाता है ....
April, 2006
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